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रेडियो रवांडा ने कराया था नरसंहार, क्या भारतीय मीडिया भी उसी राह पर?

 25 Apr 2024

रवांडा मध्य-पूर्व अफ्रीका में स्थित एक छोटा सा देश है। इसका कुल क्षेत्रफल, भारत के केरल राज्य से भी छोटा है। लेकिन इस छोटे से देश ने विश्व के सबसे वीभत्स नरसंहारों में से एक नरसंहार को सहा है। 1994 का रवांडा नरसंहार 7 अप्रैल 1994 से लेकर 15 जुलाई 1994 तक चला, जिसमें लाखों लोग मारे गये। रवांडा में नरसंहार को कराने में देश की सरकार ही हाथ था। उस दौरान रवांडा में देश की सरकार को बनाने में वहां के बहुसंख्यकों का ज़्यादा प्रभाव रहता था, जो अब भी है। नरसंहार में अल्पसंख्यकों और उनके समर्थन करने वालों लोगों को मौत के घात उतार गया था।

सबसे ख़तरनाक बात यह है कि एक पूरे देश को नरसंहार के रास्ते पर लाने वाला अगर कोई था, तो वो एक रेडियो चैनल RTLM था। क्योंकि रेडियो चैनल ही था जो लगातार बहुसंख्यकों के दिमाग़ में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नफ़रत भर रहा था। क्या ऐसा ही कुछ आपको अपने देश में भी दिख रहा है? रेडियो रवांडा के बारे में आपने सुना होगा। आपने सुना होगा कि भारतीय मीडिया रेडियो रवांडा बनने की राह पर अग्रसर है।



क्या भारत का मीडिया रेडियो रवाँडा बनने की ओर 

भारत के एडिटर्स गिल्ड ने टेलीविज़न चैनलों की मौजूदा भूमिका को देखते हुए यह चेतावनी क्यों जारी की? क्या जिस तरह मीडिया ने अफ्रीकी देश रवाँडा में नरसंहार कराया था, वैसा ही ख़तरा भारत में भी पैदा हो रहा है। आख़िर क्या हुआ था रवाँडा में जो पूरी दुनिया में मीडिया की ख़तरनाक भूमिका की एक डरावनी मिसाल बन गया है?

लेकिन इन सवालों के जवाबों को तलाशने से पहले बात लोकतंत्र की बात कर लेते हैं।किसी देश में लोकतंत्र की स्थिति का अंदाज़ा लगाना हो तो वहाँ के मीडिया का हाल देख लेना चाहिये। यानी, किसी देश का लोकतंत्र कितना स्वस्थ है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाना चाहिए कि वहाँ का मीडिया किस हद तक आज़ाद है। क्या वह सरकार से खुलकर सवाल पूछ सकता है? क्या सरकार की नीतियों की आलोचना कर सकता है? अगर ऐसा नहीं है तो माना जाता है कि उस देश में लोकतंत्र की स्थिति अच्छी नहीं है। अगर किसी देश में मीडिया पर नियंत्रण किया जाता है तो उसे तानाशाही के लक्षणों में गिना जाता है। लेकिन भारत के लिए ख़बर यह है कि जिस भारत को लोकतंत्र की जननी कहा जाता है, वहाँ की मीडिया की आज़ादी संदेह के घेरे में आ चुकी है।

डेमोक्रेसी इंडेक्स की 2023 की रिपोर्ट में भारत को 108वें स्थान पर रखा गया है। साल भर पहले यानी 2022 में भारत का स्थान 100वां था। लोकतंत्र में आयी इस कमज़ोरी का सीधा संबंध मीडिया की स्वतंत्रता से है। संयोग नहीं कि 2023 में जारी हुई वर्ल्ड फ्री प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत को 161वें स्थान पर रखा गया, जो साल भर पहले 150वें स्थान पर था।

भारत के मीडिया का सबसे ख़तरनाक पहलू उसका सांप्रदायिक रंग में रंगना है। आजकल आप जब भी अपने टेलीविज़न को खोलते हैं तो अक्सर अलग-अलग धर्मों के प्रतिनिधियों को किसी ऐसे मुद्दे पर बहस करते पाते हैं जिससे समाज में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बढ़ने की संभावना हो।जबकि एक ज़माने में माना जाता था कि मीडिया का काम समाज में सद्भाव और समन्वय बढ़ाना है।

अख़बारों की सुर्खियों और ख़बरें पेश करने का तरीक़ा भी उलट गया है। पहले किसी सांप्रदायिक संघर्ष को दो समुदायों के बीच का झगड़ा बताया जाता था। वहीं अब साफ़ तौर पर धार्मिक पहचान के साथ ख़बर छापी जाती है। हद तो ये है कि कुछ समय पहले जब कोरोना की शुरुआत हुई तो मीडिया के बड़े हिस्से ने तबलीग़ी ज़मात के एक कार्यक्रम को कोरोना फ़ैलाने का ज़िम्मेदार ठहराना शुरू कर किया था।

पैगंबर मोहम्मद पर आपत्तिजनक टिप्पणी से उपजे विवाद और न्यूज चैनल्स पर हुई उसकी कवरेज को लेकर भारत में संपादकों की सबसे बड़ी संस्था एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने कुछ समय पहले गहरी चिंता ज़ाहिर की थी। 8 जून 2022 को गिल्ड की ओर से ज़ारी बयान में कुछ न्यूज़ चैनल्स की तुलना ‘रेडियो रवांडा’ से करते हुए कहा था कि-

‘कुछ न्यूज़ चैनल्स व्युअरशिप बढ़ाने और लाभ कमाने के लिए रेडियो रवांडा के मूल्यों से प्रेरित थे, जिसकी वजह से अफ्रीकी देशों में नरसंहार हुए थे।’



क्या था रेडियो रवाँडा और उसने कैसे कराया नरसंहार

दरअसल, रवांडा अफ्रीका के मध्यपूर्व स्थित एक छोटा सा देश है। यहाँ हूतू क़बीले की आबादी कुल जनसंख्या का करीब 85 फ़ीसदी है जबकि यहाँ शासन तुत्सी कबीले से जुड़े राजतंत्र का रहा था।

1959 में हूतू समुदाय ने तुत्सी राजशाही के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया और 1962 में हूतू प्रभुत्व वाले गणतंत्र को स्थापित करने में क़ामयाब हो गये। विद्रोह के दौरान तुत्सी समुदाय से जुड़े हज़ारों लोगों ने पड़ोसी युगांडा और दूसरे देशों में शरण लेना शुरू कर दिया था।

1973 में रवाँडा में सैन्य विद्रोह हुआ लेकिन इस शासन में भी हूतू वर्चस्ववादी नीति चलती रही। ज़वाब में तुत्सी समुदाय ने रवाँडा पेट्रियॉटिक फ्रंट यानी आरपीएफ का गठन किया। देश में सामाजिक और राजनीतिक उथलपुथल का दौर जारी रहा। हूतू चरमपंथी लगातार तुत्सी समुदाय के ख़िलाफ़ व्यापक प्रचार अभियान चलाते रहे थे। दूसरी तरफ़ प्रचार में आग का काम रेडियो रवांडा कर रहा था।

8 जुलाई 1993 में रेडियो टेलीविज़न लिब्रे डेस मिल कोलिन्स यानी आर.टी.एल.एम की स्थापना हुई थी। हुतू चरमपंथियों के सहयोग से स्थापित हुए इस रेडियो रवाँडा ने तुत्सी समुदाय के ख़िलाफ़ लगातार घृणा अभियान चलाया गया। 6 अप्रैल 1994 को रवांडा के तत्कालीन राष्ट्रपति को एक हवाई यात्रा के दौरान मार दिया गया। लंबे समय से ज़ारी सांप्रदायिक माहौल बनाने की कोशिशों के तहत ही, इस हत्या का आरोप तुत्सी समुदाय पर लगाया गया। रेडियो रवाँडा के ज़रिए इसे ख़ूब हवा दी गयी। नतीजा ये हुआ कि दूसरे ही दिन यानी 7 अप्रैल 1994 को ऐसी हिंसा शुरू हुई जो देखते ही देखते नरसंहार में बदल गयी।

ये नरसंहार अगले 100 दिनों तक लगातार जारी रहा। इस दौरान लोग अपने रिश्तेदारों से लेकर पड़ोसियों और यहां तक की अपनी पत्नियों की भी हत्या कर रहे थे। इस नरसंहार में क़रीब 8 लाख़ लोगों की नृशंस हत्या की गयी। नरसंहार के दौरान हज़ारों औरतों के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। यहाँ तक की तुत्सी समुदाय के लोगों की मदद करने वाले और उनके प्रति संवेदना दिखाने वाले हूतू लोगों को भी मार दिया जाता था।

आर.टी.एल.एम रेडियो के माध्यम से तिलचट्टों यानी तुत्सी समुदाय का सफ़ाया किये जाने की बात बार-बार प्रसारित की गयी। रेडियो के माध्यम से ये रट लगायी जाती रहती थी कि ये लोग यानी तुत्सी हमारे देश पर कब्ज़ा कर लेंगे। हमारे देश में तुत्सियों का साम्राज्य बन जायेगा। हमें ये तुत्सी समुदाय के लोग हमेशा के लिए गुलाम बना लेंगे। इस प्रचार अभियान के प्रभाव में आकर तमाम लोगों ने नरसंहार में अपनी सक्रिय भागीदारी निभायी।

ऐसा नहीं है कि इस नरसंहार की आहट महसूस नहीं की गयी थी या इसमें मीडिया की भूमिका को बताया नहीं किया गया था। नरसंहार से जुड़े मसलों का अध्ययन करने वाली अमेरिकी संस्था जेनोसाइड वॉच के संस्थापक प्रोफ़ेसर ग्रेगोरी स्टेंटन ने रवांडा के रेडियो के प्रसारणों को सुन कर यह भविष्यवाणी की थी कि वहां नरसंहार होगा और 1994 में वो हुआ भी।

भारत के लिए ड़रने या चिंतित होने की बात इसलिए है क्योंकि भारतीय मीडिया भी उसी राह पर है। रवाँडा में नरसंहार की भविष्यवाणी करने वाले प्रोफ़ेसर स्टेंटन ने साल 2022 में चेतावनी दी थी कि नरसंहार होने की आशंका को अगर एक से दस के स्केल पर नापा जाये तो भारत आठवें स्केल पर आ चुका है।

अफ़सोस की बात ये है कि भारत में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के सहारे वोट बटोरने की सियासत चरम पर है। देश पर शासन कर रही बीजेपी पर आरोप है कि वह देश में सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ावा दे रही है। सरकार की इस नीति पर सवाल उठाने वाला मीडिया अब ग़ायब हो चुका है क्योंकि वह पूरी तरह से कॉरपोरेट द्वारा नियंत्रित है जो सरकार के साथ खड़े हैं। यहाँ तक कि विपक्ष की ओर से होने वाली आलोचनाओं को भी मीडिया में जगह नहीं मिलती है।

रवांडा में जो कुछ हुआ था, उससे ये साफ़ है कि लोगों को कमज़ोर और अल्पसंख्यक के ख़िलाफ़ हिंसा और जनसंहार के लिए, बहुसंख्यक को उकसाने में मीडिया की कितनी बड़ी भूमिका हो सकती है। पिछले कुछ सालों से भारतीय मीडिया इसी राह पर है। मेनस्ट्रीम हिंदी और अंग्रेज़ी मीडिया में भी अधिकतर जिस तरह के कार्यक्रम और बहसें चलती हैं, वो रेडियो रवाँडा की याद दिलाता है। टीवी के संपादक तक अपने प्राइम टाइम शोज़ में बहुसंख्यक पर अनजाने ख़तरे की बात करते हैं। डिबेट्स में भी आये दिन ये ड़र दिखाया जाता है कि कहीं भारत देश इस्लामिक राष्ट्र न बन जाये। हिंदू राष्ट्र बनाने, लव जिहाद, मुस्लिमों की जनसंख्या जैसे मसलों पर तर्कहीन कार्यक्रम चलाये जाते हैं।

1 जुलाई 2022 से 31 जुलाई 2022 तक 7 टीवी चैनल्स के 10 शोज़ का विश्लेषण स्वतंत्र ऑनलाइन मीडिया न्यूज़लॉन्ड्री ने किया था। जिसपर न्यूज़लॉन्ड्री ने कुल 249 एपीसोड्स प्रसारित किये। इनमें से 132 एपीसोड सांप्रायिक विषयों पर थे। 50 विपक्ष के विरोध में। 24 पर्यावरण और राष्ट्रीय आपदा पर। 20 एपीसोड थे सरकार के समर्थन में और बाकी बचे हुए 23 एपिसोड अन्य विषयों पर थे। जॉब, शिक्षा, स्वास्थ्य के मुद्दे लगभग शून्य थे।किसी भी राजनीतिक दल की सरकार में लगभग ऐसा ही हाल देखने को मिलता है। मतलब मीडिया ने समाज में साम्प्रदायिकता का ज़हर घोलने का ठेका उठाया हुआ है।

टीवी एंकर्स के ख़िलाफ़ साम्प्रदायिक शत्रुता फैलाने के ख़िलाफ़ FIR भी हुई थी। नियामक संस्था न्यूज़ ब्रॉडकास्ट एंड डिजिटल स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी (एन.बी.डी.एस.ए) ने भी समय-समय पर टीवी चैनल्स के सांप्रदायिक कंटेंट की आलोचना की है।

भारतीय मीडिया की सांप्रदायिकता को हवा देने की इस नीति पर सुप्रीम कोर्ट ने भी गहरी चिंता जतायी है। कुछ समय पहले हेट स्पीच से जुड़े मामले की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि न्यूज़ चैनल भड़काऊ बयानबाज़ी की जग़ह बन गये हैं। प्रेस की आज़ादी अहम है लेकिन बिना रेगुलेशन(नियम) के टीवी चैनल हेट स्पीच का ज़रिया बन गये हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि नफ़रत रोकना एंकरों की ज़िम्मेदारी है लेकिन वे तो खुद नफ़रत फैलाने वाली भाषा बोल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के मूक दर्शक बने रहने पर भी हैरानी जतायी। वाक़ई यह चिंता की बात है कि मीडिया के इस नफ़रती स्वरूप पर सरकार कोई कार्रवाई नहीं कर रही है, या करना नहीं चाहती। क्या वह चाहती है कि भारत में भी वही सब हो जो रवांडा में हो चुका है? ज़रूरत है कि रेडियो रंवाडा से सबक लिया जाये वरना मुनाफ़ा और वोट की हवस सब कुछ बर्बाद कर देगी।